तुम कहते हो की हमारा देश विकसित हो रहा है। शायद तुम सही बोल रहे हो आखिर बड़ी बड़ी इमारतों के बीच हमारी छोटी छोटी झोपड़ियां हमारी छोटी छोटी समस्याएं तुम्हें कहां दिखाई दे रही होंगी तुमने आंखो पर पट्टी जो बांधी है आंखो के आगे तो अंधेरा छाया हुआ है ख़ैर क्या ही बोल सकती हूं कहां तुम्हारी आरामदायक दुनिया और कहां हमारी दुनिया जिसमें हमें एक वक्त का खाना भी नसीब हो जाए तो खुदा की मेहरबानी समझकर मुस्कुराहट के साथ सो जातें है। सो जातें है इस उम्मीद में की कल हमें शायद दो वक्त कि रोटी नसीब हो सके शायद कल हमें भुखा ना सोना पड़े।
पता है हमें हर दिन चीखें सुनने को मिलती हैं लगता है जैसे कोई जोर जोर से चिल्लाकर बोल रहा हो “मुझे छोड़ दो, मुझे जाने दो, क्या सोच रहे हो? किसकी है ये चीखें? हां तुम सही सोच रहे हो ये चीखें उन्हीं बहनों की है जिनके साथ हर रोज जबरदस्ती की जाती है जो बहुत ही दर्दनाक हालत में मिलती हैं कभी सड़क किनारे तो कभी जंगलों में तो कभी खेतों में। ये वहीं है जो इतनी बड़ी घटना के बाद अस्पताल में ज़िंदगी के लिए जंग लड़ती हैं और जंग जीत जाए तो लोगों से लड़ती हैं उनके तानों से लड़ती है। वो लड़की जो दस लड़कों के बीच उसे छोड़ देने की गुहार लगा रही थी वो भूल गई थी कि यहां के लोग नंगे जिस्म को ढखने से ज़्यादा पैसा जिस्म को नंगा करने के लिए उड़ाते है वो भूल गई थी कि नजरें लोगों की गन्दी होती है और घूंघट औरतों को डालना पड़ता है। वो भूल गई थी कि यहां न्याय पर भी राजनीति होती है। पता है कई बार हमारी भूख हमें इसे दरिंदो का शिकार भी बनवा देती हैं।
अच्छा ये सब बातें तो पुरानी और कुछ उभाऊ सी लग रही होंगी ना छोड़ो इन सब बातों के बारे में क्या ही बात करना । सुनो तुम्हें पता है कल क्या हुआ कल ना एक छोटी सी बच्ची हाथों में गुलाब के फूल लिए सड़क पर जाते हुए हर राहगीर को बोल रही थी “साहब गुलाब लेलो मैडम खुश हो जाएगी , मैडम गुलाब लेलो गुलाब" हर राहगीर उसे देखकर अपनी नजरें घुमाकर चला जा रहा था। आश्चर्य की बात तो ये थी कि वो गुलाब सी बच्ची कैसे गुलाब के फूल बेचने के लिए तपती गर्मी में नंगे पैर घूम रही थी और देखने वाले हजारों लोगों ने देखा उसके तपते पैरों को , उसके चेहरे की मासूमियत को, लेकिन जिसने भी देखा उसके चेहरे पर कोई भाव ही नहीं था, ऐसा लग रहा था मानो इंसान के शरीर से इंसानियत कोसों दूर जा रही थी। उस बच्ची के छोटे छोटे नैनों से अक्षुओं की बहती धारा उसके हृदय के दर्द को बयां कर रही थी और लोगों का मुंह मोड़कर जाना उनकी निर्दयता को।
समझ नहीं आ रहा कि लोगों के दिलों से संवेदनशीलता की भावना कहां विलुप्त हो गई। उस दिन ये देखने में आया बच्ची ना गुलाब बेच पाई ना ही अपनी भूख शांत कर पाई। बस ये सोचते हुए की कल तो सारे गुलाब बेचने है कल सवेरे फिर जल्दी उठकर काम करना है बच्ची भूख से रोते रोते सो गई ।
उस दिन इंसानों में विलुप्त होती मानवता की भावना को देखा गया जिसने ना जाने कितनी ऐसी बच्चियों को दरिंदो की हवस का शिकार बनने दिया, उन जैसी बच्चियों के पैरों को जलने दिया बल्कि उसे भुखा सोने पर भी मजबूत कर दिया।
Written by : Nikita Prajapati
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